Didarganj Yakshini : Symbolizing Complete Womanhood

दीदारगंज यक्षिणी
सम्पूर्ण-नारीत्व का प्रतीक

सुनिता भारती

The Didarganj Chawry Bearer (Female Figure)

Height with pedestal: 6' 9½"
Height of Statue: 5'2"
Height of pedestal:  1' 7 ½"
Depth:  1' 8" (side of the square pedestal)
Material: Chunar Sandstone (polished)
Colour: Buff

(Accordig to Dr. D. B. Spooner, JOBORS Volume 5 part 1, page-108; Height of Statue: 5'2½"
Height of pedestal:  1' 6 ½")

1917 में पटना के दीदारगंज से प्राप्त मौर्य-कालीन प्रस्तर प्रतिमा ‘दीदारगंज यक्षिणी’ कला-इतिहास में एक विशिष्ठ स्थान रखता है। विश्व की कतिपय प्रसिद्द प्राचीन मूर्ति-कलाओं में प्राचीनता, कलात्मकता, रचनात्मकता और तकनीक की दृष्टि से इस कला-कृति का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इस कलाकृति को भारत का प्रथम[1] त्रिविमीय नारी-मूर्ति होने का गौरव भी प्राप्त है।
दीदारगंज यक्षिणी की यह प्रतिमा एक पुरातन कलाकृति मात्र नहीं है, जिसके प्रदर्श मूल्यों की व्याख्या कर के संतुष्ट हो जाया जाए। इसका अस्तित्व अनेक अनसुलझे रहस्यों से घिरा है, जिनका उत्तर पुराविदों और इतिहासकारों के पास नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि इसके निर्माण से सम्बंधित  सभी तथ्यों का खुलासा कभी न हो सके, क्योंकि सूदूर अतीत के इस ख़ास  कलाकृति के बारे में सम्पूर्ण और सम्यक जानकारी के श्रोत बहुत सीमित हैं। परन्तु इसकी कलात्मकता, सौन्दर्य और कलाकार की सूक्ष्म अभिव्यक्ति के अध्ययन से इस कलाकृति के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है। मैंने इसी बात पर विचार किया है कि तथ्यों के विवादस्पद होने के बावजूद एक आम दर्शक सम्यक रूप से और सहज भाव से इसका अवलोकन करे तो कम से कम इसके निर्माण का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है।
18 अक्टूबर 1917 को दीदारगंज पटना में गंगा के किनारे इस की खुदाई संयोगवश ही हुई थी और नवम्बर के महीने में इसे नवनिर्मित पटना म्यूजियम में लाया गया था। तब से अब तक इसका काफी अध्ययन भी हुआ है, फिर भी इसका काल, इसकी पहचान, निर्माण के उद्देश्य और यहाँ तक कि 1917 में इसके प्राप्त होने की घटना आदि, निर्विवाद रूप से स्थापित नहीं हो सके हैं।
इस मूर्ति के अध्ययन को तीन सोपान में बांटा जा सकता है।
पहला, इसके मिलने के घटना-क्रम का विवरण जो मुख्य रूप से दो श्रोतों पर आधारित है: 1919 के जर्नल ऑफ़ बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी में डॉ. डी. बी. स्पूनर का आलेख एवं मालसलामी थाना के इंस्पेक्टर द्वारा 20-10-1917 को लिखा गया गोपनीय रिपोर्ट।
दूसरा, मूर्ति का पुरातात्विक और कलात्मक दृष्टि से अध्ययन जिसमें इसका काल-निर्धारण और  मूर्ति की कलात्मकता से सम्बंधित तथ्यों का अध्ययन शामिल है।
तीसरा, इस कलाकृति के निर्माण का उद्देश्य, इसकी पहचान, एवं इसका सांस्कृतिक अथवा धार्मिक महत्व का विश्लेषण।
खोज:
डॉ. डी. बी. स्पूनर[2] ने अपने रिपोर्ट में इस कलाकृति के मिलने के सन्दर्भ में जो वर्णन किया है उसके अनुसार दीदारगंज कदम रसूल (नसीरपुर-ताजपुर, हिस्सा खुर्द, थाना मालसलामी, पटना सिटी के पूरब) में गंगा नदी के किनारे यह मूर्ति जमीन में गड़ी पाई गयी थी। अक्टूबर के महीने में नदी का जल स्तर गिरने के कारण किनारे की जमीन में इसका पेडस्टल एक चौकोर पत्थर के रूप में थोड़ा उपर उभर आया था। गाँव के काजी गुलाम मोइउद्दीन के युवक बेटे गुलाम रसूल की नजर में यह पत्थर आया तो उसने इसे घरेलू उपयोग के ख्याल से खुदवाना शुरू किया और इस तरह यह मूर्ति नामुदार हुई। जाहिर है, पत्थर के इस बुत को गाँव वालों ने देवी-देवता का मूर्ति समझा, इसलिए गुलाम रसूल ने आगे अपनी कोई रूचि नहीं दिखाई और पुलिस को इसकी सूचना दी। गाँव वालों ने इसे प्राप्ति स्थान से थोड़ा ऊपर, अलग  ले जा कर इसकी पूजा पाठ शुरू की।
दूसरी ओर, 20-10-1917 को मालसलामी थाना के  इंस्पेक्टर ने जो गोपनीय रिपोर्ट लिखा है, उसके अनुसार गंगा के किनारे, जमीन से उभरे एक चौकोर पत्थर पर लोग कपड़ा धोया करते थे। 18 अक्टूबर 1917 को जब गाँव की एक धोबिन उस पत्थर पर कपड़ा धो रही थी, एक सांप को पत्थर के निकट एक बिल/दरार में घुसते देखा गया। सांप को मारने के लिए जब लोगों ने आस पास की मिट्टी हटाई तो पाया कि यह एक आदम-कद स्त्री की प्रतिमा है और इसका पूजा पाठ करना शुरू किया। रिपोर्ट में सूचना देने वाले का नाम गुलाम रसूल अंकित है।
श्रोतों के अनुसार, 17-11-1917 को यह मूर्ति पटना म्यूजियम में लाई गई और पत्रांक 261, दिनांक 20-11-1917 द्वारा ‘पुरानिधि निखात कानून - 1878’ के तहत मि. ई. एच. सी. वाल्श ने इस कलाकृति को म्यूजियम में अधिगृहित किया। यानि प्राप्ति के ठीक एक महीने बाद यह कलाकृति पटना म्यूजियम पहुँच गयी थी। डॉ. डी. बी. स्पूनर की रिपोर्ट 1919 में जर्नल ऑफ़ बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी के पांचवें वॉल्यूम के दूसरे भाग में, यानि करीब डेढ़-दो वर्ष बाद छपा था। डॉ. स्पूनर की यह रिपोर्ट इस कलाकृति पर लिखे गए अधिकांश आलेखों का आधार है।
लेकिन इंस्पेक्टर की गोपनीय रिपोर्ट और डॉ. स्पूनर के विवरण का अंतर नहीं समझ में आता है, जबकि दोनों ही इसके प्रारंभिक जांचकर्ताओं में थे। दूसरी विचारणीय बात यह है कि मालसलामी के इंस्पेक्टर का रिपोर्ट ‘गोपनीय’ श्रेणी का क्यों था?
मुझे अभी तक इस प्रश्न का समुचित उत्तर, इस विषय पर लिखे गए उपलब्ध आलेखों में नहीं मिला है। शायद अनुसंधानकर्ताओं ने इस पर ज्यादा खोज-बीन नहीं की क्योंकि इस मूर्ति का पुरातात्विक और कलात्मक विश्लेषण ही उनके सामने मुख्य मुद्दा था।
किन्तु उपरोक्त दोनों रिपोर्ट्स को मिला कर देखा जाय तो कुछ ऐसी कहानी बनती है:
जमीन में गड़ी हुई मूर्ति का पेडस्टल जो जमीन के उभरा हुआ था, लोगों के द्वारा या धोबियों के द्वारा कपड़ा धोने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। निश्चित रूप से अचानक ही लोगों ने उसे खोदना शुरू नहीं किया होगा। जब 18 अक्टूबर को उसके बगल में सांप घुसते देखा गया तो लोगों को डर हुआ कि इस पत्थर को इस्तेमाल करने वाले के लिए सांप खतरा हो सकता है। गुलाम रसूल ने सोंचा होगा कि सांप मारने के बहाने इस पत्थर को निकलवा कर अपने घरेलू काम में लाया जाए, क्योकि पत्थर बिलकुल चौकोर था और घर या बाहर, किसी काम में उसका प्रयोग हो सकता था। उसी ने पत्थर खुदवाना शुरू किया था। जब मूर्ति मिली तो उसके किसी काम की नहीं थी, क्योंकि मानव मूर्तियाँ मुसलामानों के लिए स्वीकार्य वस्तु नहीं होती। किन्तु गुलाम रसूल ने मजदूरों को पैसा दिया होगा इसलिए मूर्ति पर अपना स्वामित्व जताया होगा और उस मूर्ति का कुछ और भी उपयोग करने की मंशा रखता होगा। चूँकि हिन्दुओं ने इसे किसी  देवी की मूर्ति समझा था इसलिए, शायद, जबरदस्ती मूर्ति को खुदाई स्थल से हटा कर उसकी पूजा पाठ शुरू की, जिसकी सूचना  गुलाम रसूल ने पुलिस को दी। शायद यही कारण है कि डॉ. स्पूनर ने लिखा है कि मूर्ति को अनधिकृत[3] लोगों द्वारा खुदाई स्थल से हटाया गया। चूँकि अंग्रेज हिन्दू मुसलमान के बीच के तनाव को गंभीरता से लेते थे इसलिए, उन्होंने घटना की सत्यता के लिए इंस्पेक्टर से गोपनीय रिपोर्ट माँगा होगा।
दूसरी संभावना यह है कि गुलाम रसूल ने पत्थर को घर ले जाने के उद्देश्य से ही खुदवाया होगा और सांप वाली कहानी इंस्पेक्टर ने गढ़ी हो यह छुपाने के लिए कि गुलाम रसूल ने अनधिकृत रूप से खुदाई करवाया था, ताकि कोई मजहबी तनाव न बढ़े।
किन्तु ज्यादा संभावना पहली काहानी के सत्य होने का है, वही ज्यादा तर्कपूर्ण जंचता है। यही कारण है कि मैंने इसी कहानी को अपने नाटक यक्षिणी में दिखाया है।
काल निर्धारण:
अध्ययनकर्ताओं ने तुलनात्मक विश्लेषणों के आधार पर इसके काल-निर्धारण एवं इसकी पहचान (यह किस चीज की प्रतिमा है) का प्रयास किया है। यहाँ भी अनुसंधानकर्ताओं में एक-मत नहीं है। विभिन्न अनुसंधानकर्ता इसे ईसा पूर्व तीसरी शतब्दी[4](मौर्य-काल) से ले कर ईसा की पहली-दूसरी शताब्दी[5] तक में बना हुआ मानते हैं। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल और उनके पुत्र डॉ. पृथ्वी कुमार अग्रवाल, आर. पी. चंदा, प्रमोद चन्द्र, पी. के. जायसवाल आदि इस प्रतिमा को मौर्य काल का मानते हैं तो दूसरी ओर, जे. एन. बनर्जी, निहार रंजन राय, एस. के. सरस्वती आदि इसे उत्तर-मौर्य काल में बना हुआ मानते हैं। मुख्य रूप से जो इनके अध्ययन और निष्कर्ष की पद्धति है, वह मौर्य-कालीन कलाकृतियों के दो श्रेणियों में बाँट कर देखने की। कला-इतिहास के अधिकारिक विद्वान डॉ. कुमारस्वामी ने मौर्य-कलाकृतियों को दो भागों में बांटा है: राजकीय और परंपरागत, अथवा राज-पोषित-कला और लोक-कला। अन्य सभी विद्वान् इस विभाजन को मानते और इसी विचार-रेखा पर काम करते रहे हैं। राजभवन, स्तम्भ (लाट) और सार्वजानिक निर्माण आदि राजकीय कलाकृतियाँ मानी जाती हैं, जबकि, यक्ष-यक्षी, छोटे-मोटे बर्तनों या सजावटी सामान, मानवीय आकृतियाँ, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ इत्यादि लोक-कलाकृतियाँ हैं, जिनमें वैसी निपुणता या जीवन्तता नहीं दीखती जैसा कि राजकीय निर्माणों में दृष्टिगत है। शायद इसका कारण राजकीय निर्माणों में यूनानी-इरानी कलाकारों का सम्मिलित रहना है। इतना तो साफ़ है कि मौर्यकालीन स्तंभों और उनके शीर्ष के निर्माण-शैली पर यूनानी-इरानी प्रभाव है और बहुत संभव है विदेशी कलाकारों ने ही भारतीय कलाकारों को  प्रस्तर निर्माण तकनीकों का प्रशिक्षण दिया हो। क्योंकि मौर्य काल से पहले भारत में लकड़ी की कलाकृतियाँ बनती थीं और पत्थर का प्रचलन नहीं था। जब मौर्य साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में हुआ और वहां से सांस्कृतिक सम्बन्ध बने तो यहाँ भी यूनानी-इरानी प्रस्तर कला का प्रसार हुआ। लेकिन भारतीय निर्माण शैली बिलकुल मौलिक है। यूनानी-इरानी और भारतीय निर्माणों को अगल-बगल रख कर देखने पर  उनकी साम्यता और भिन्नता स्पष्ट नजर आती है और भारतीय कलाओं में मूल भारतीय अवधारणा की मौलिकता साफ दीखती है।[6]
दीदारगंज प्रतिमा के सिर और नितम्बों के ऊपर का अग्र भाग, बिलकुल आधुनिक मूर्ति-कला की विशिष्ठता लिए है, जबकि इसके पश्च भाग में और कूल्हे से नीचे के अग्र भाग में वास्तविकता का आभाव दीखता है। जिसके चलते अपरिष्कृत यक्ष-यक्षी की अन्य मूर्तियों (जैसे, पटना यक्ष, पाखम, बेसनगर, पवाया, की मूर्तियाँ आदि) की तरह इसे भी पारंपरिक कलाकारों द्वारा बनाया गया माना जाता है और इसे यक्षिणी के मूर्ति के रूप में देखा जाता है। अन्य मूर्तियों  से अलग जो इसकी विशिष्ठता है, उसे आगे चल कर विकसित हुए पारंपरिक (देशी) कला का परिणाम मान कर इसे मौर्य-काल के बाद का होने का अनुमान किया जाता है।
किन्तु यह आवश्यक नहीं कि दीदारगंज यक्षिणी वास्तव में यक्षी की ही मूर्ति है। प्रशांत कुमार जायसवाल[7] का मत है कि दीदारगंज चामर-धारिणी किसी यक्षी की नहीं बल्कि चक्रवर्ती सम्राट के लिए अनिवार्य ‘स्त्री-रत्न’ की मूर्ति है। उन्होंने सम्राट अशोक के द्वारा नारी-सत्ता के उत्थान के लिए किये गए अनेक सुधारों का हवाला देते हुए अनुमान लगाया है कि यह मूर्ति अशोक द्वारा ही उसके राजकीय शिल्पी के देख रेख में ‘स्त्री-रत्न’ के प्रतीक के रूप में बनवाया गया होगा। अतः इसे लोक-कला की परंपरा की कलाकृति मान लेना दोषपूर्ण है। यह राज-पोषित कला हो सकता है जिसका निर्माण किसी विशेष उद्देश्य से, राजकीय कलाकारों की देख-रेख में किया गया हो। क्योंकि जिस कलाकार ने चहरे और वक्ष-स्थल का चित्रण असाधारण सूक्ष्मता से किया हो और उसमें स्वाभाविक लोच और जीवन्तता भरी हो, उसी कलाकार के द्वारा पैरों और पृष्ठ भाग के साधारण प्रारूपण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अतः हो सकता है कि इस कलाकृति को किसी एक कलाकार ने नहीं बनाया, बल्कि एक गुरु (राजकीय-कलाकार) के अधीन अनेक कलाकारों ने इसे मिल कर बनाया होगा। महत्वपूर्ण भागों को स्वयं गुरु ने प्रारूपित (model) किया और शेष कम महत्व के भागों को शिष्यों  अथवा कनिष्ठ कलाकारों ने। ऐसा ही डॉ. स्पूनर का भी मत है।
अतः, दीदारगंज प्रतिमा लोक-परंपरा की यक्षी नहीं, जो पूजा के उद्देश्य से बनाए जाते थे। उनमें चहरे पर सूक्ष्म भावों का अंकन और शरीर के बनावट में तरलता का अभाव होता है। इसलिए यह विचार ही सही लगता है कि एक राज-कला हैं, जो या तो एक परिचारिका की मूर्ति है अथवा चक्रवर्ती सम्राट-सुलभ सात रत्नों में एक, ‘स्त्री-रत्न’ की।
यदि यह एक परिचारिका है, जो सम्राट या देव-प्रतिमाओं के साथ सहायक आकृति के रूप में खड़ी की जाती थी, तो सममिति (symmetry) के ख्याल से किसी मुख्य प्रतिमा के साथ इस तरह की दो प्रतिमाएं होनी चाहिए, जिनमें सिर्फ एक ही मिली है। यानि एक केंद्रीय प्रतिमा और एक अन्य परिचारिका की प्रतिमा के कहीं मिट्टी में दबे होने की संभावना है। परिचारिकाओं की मूर्तियों का स्थान महलों या सभागारों (दरबार) के मुख्य द्वार पर भी हो सकता है। किन्तु वहां भी सममिति के ख्याल से इन्हें दो होना चाहिए। हो सकता है यह कलाकृति गेट के अगल-बगल, सामने की ओर मुँह किये दीवार के आगे खड़ी की गयी हो और शायद यही कारण है कि इसके पश्च भाग के मॉडलिंग पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया।
यदि यह स्त्री-रत्न की मूर्ति है, जैसा कि प्रशांत कुमार जायसवाल और कार्ल खंडालवाला मानते है, तो यह निश्चित रूप से अशोकन-आर्ट  है, जिसे राजकीय कलाकारों की देख-रेख में बनवा कर उंचाई पर स्थापित किया गया होगा, जिस प्रकार आज महापुरुषों की मूर्तियों को चौराहे पर या किसी भवन के परिसर में प्लेटफार्म पर स्थापित किया जाता है।
इसके दीदारगंज के आस-पास मिलना इस बात को बल देता है कि इसे पाटलिपुत्र नगर के पूर्व द्वार के निकट स्थापित किया गया होगा (जो दीदारगंज के आस-पास रहा होगा)। सार्थों के मार्ग-वर्णन के आधार पर पाटलिपुत्र का पूर्वी नगर द्वार राजगृह को जाने वाले राजमार्ग पर था और जल-मार्ग से आने वाले सार्थों के व्यापारी भी वहां उतरते थे[8]। इस द्वार के चतुर्दिक “हट्ट” का स्थान था, अतः हो सकता है, स्त्री-रत्न की यह मूर्ति वहां किसी ऊँचे आधार पर इसलिए स्थापित की गयी हो कि इसमें निहित सन्देश सार्थ के व्यापारियों के साथ दूर-दराज तक पहुंचे। चूँकि मौर्य-राजा कुछ ज्यादा ही विज्ञापन-प्रिय थे, यह तर्क सटीक लगता है।
इसके उंचाई पर स्थापित होने के अनुमान के पीछे भी कारण हैं। उंचाई पर स्थापित प्रतिमाओं के वह भाग नहीं चमकाए जाते थे जिन पर देखने वाली की नजर नहीं जाती हो। जैसे, वैशाली स्तम्भ के शीर्ष- शेर के पाँव को भी नहीं चमकाया गया है। इसी तरह दीदारगंज यक्षिणी के पाँव को भी नहीं चमकाया गया है। पेडस्टल के साथ यह मूर्ति एक ही पत्थर की बनी है, और पेडस्टल की लम्बाई डेढ़ फीट से ज्यादा है। अतः आधार पर गड्ढा बना कर उसमें पेडस्टल को फिट करके इसे खड़ा किया गया होगा।
इस मूर्ति पर चमकदार पॉलिश और इसके चुनार  का बलुआ पत्थर का बना होना तथा इसकी तमाम खूबियाँ जो अशोक-स्तंभों के शीर्ष मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं, इसके मौर्यकालीन होने के तथ्य को असंदिग्ध बनाते है। यह आवश्यक नहीं कि स्तंभों पर सूक्ष्मता से काम करने वाले निपुण कलाकार मानव-मूर्तियों को बनाने का काम नहीं करते होंगे। अतः यह लगभग निश्चित है कि दीदारगंज यक्षी मौर्य-कालीन है और अशोक-काल के प्रस्तर-कला की परंपरा के कलाकारों द्वारा ही निर्मित है।
यह एक आम जानकारी है कि खुदाई के दौरान प्राप्त पुरावशेषों का काल उसके पुरातात्विक काल-स्तर से जाना जाता है, किन्तु दीदारगंज यक्षी किसी खुदाई में प्राप्त नहीं हुई और न ही किसी पुरातत्व-वेत्ता के देख रेख में। फिर, इसका प्राप्ति-स्थान नदी का किनारा था जहाँ काल-स्तरों का ठीक ठाक रहना मुश्किल है। दुर्भाग्यवश इसके प्राप्त होने के स्थान का फिर से  खुदाई नहीं कराया गया, और अधिक जाँच-पड़ताल नहीं की गई। हो सकता है कि वहां कुछ और प्राप्त होता जिससे इस कलाकृति के काल और निर्माण के उद्देश्यों  पर कुछ और प्रकाश पड़ता।
फिर भी, यह तो लगभग निर्विवाद है कि यदि दीदारगंज इमेज अशोकन नहीं तो मौर्य-कालीन अवश्य है और इसी लिए इसके परिचय में इसका काल ई० पू० 299-200 बताया जाना सही है।
पहचान एवं विशेषताएं:
यह किस प्रकार का प्रतीक रहा होगा, इसका अनुमान भी सहज ही लगाया जा सकता है। इस प्रतिमा में नारी के सौन्दर्य और शारीरिक कमनीयता का सजीव और स्वाभाविक चित्रण है। पेट, कमर और गर्दन के पेशियों के वलय को सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया गया है; स्तनों को पुष्ट (दूध से भरा) और भिन्न आकार में दिखाया गया है। कूल्हे को चौड़ा और भारी बनाया गया है। ये सारे अभिलक्षण भारतीय प्रतिमानों के अनुसार एक सुन्दर, कमनीय और सद्यः मातृत्व प्राप्त स्त्री के हैं। इसके आँख का तिरछा-पन, नज़रों का कोण थोड़ा आगे (ऊपर) होना और होठों पर एक मोहक स्मित का अंकन,  स्त्री के शील, चपलता और मोहकता को जीवंत बनाने के लिए किया गया है, जो भारतीय साहित्य में नारी सौंदर्य-चित्रण में बहुलता से वर्णित है। अतः यह निश्चित रूप से ‘आदर्श नारी’ के प्रतीक के रूप में बनाया गया होगा। इस मूर्ति के चित्रण में वात्स्यायन के ‘काम-सूत्र’ में वर्णित नारी के अभिलक्षणों का समावेश दीखता है। ज्ञातव्य है कि वात्स्यायन का काल मौर्य-काल के आस-पास ही रहा है।
भारतीय वांग्मय में नारी सौन्दर्य, मातृत्व, सेवा और शक्ति की अधिष्ठात्री है। यह कोई मानव प्रदत्त प्रशस्ति नहीं बल्कि नारी के नैसर्गिक गुण हैं जिन्हें सनातन संस्कृति ने पहचाना और जाना था। प्रकृति में नारी (मादा) आधार रचना है और पुरुष अभिन्न उपांग। दीदारगंज यक्षिणी के कलाकार ने नारी के इन्ही चार नैसर्गिक विशेषताओं को इस मूर्ति के माध्यम से प्रदर्शित करने का सफल प्रयास किया है। ये विशेषताएं उसके चहरे, केश-सज्जा, वक्षस्थल, चामर, और कमर तथा नितम्बों के मॉडलिंग से पूर्ण हो जाता है। मुख्य कलाकार का काम यहीं तक दीखता है। मूर्ति के शेष भागों को सहायकों द्वारा पूरा किया प्रतीत होता है।
इसकी मुस्कराहट में दर्शक अपने भाव (वात्सल्य अथवा प्रेम) का स्पष्ट प्रत्युत्तर देखता है। यह इस मूर्ति की सबसे बड़ी विशेषता है जो स्त्री के मातृत्व एवं सौंदर्य-सत्ता (कामना) के प्रतीक को जीवंत बनाता है। कमर से आगे की ओर झुका हुआ स्निग्ध शरीर, ग्रीवा-त्रिवली, पतली कमर, विस्तृत कूल्हे आदि का चित्रण नारी के सौन्दर्य (गतिशील-कमनीयता) का प्रतीक है, जो सृष्टि को उर्वरा और गतिमान बनाए रखता है। इसके ‘दुग्ध-पूर्ण उरोज’ और ‘उदारावली’ मातृत्व के प्रतीक हैं[9]; इसके सम्पूर्ण शरीर और चहरे के भाव में एक ‘दृढ़ता’ है, जो शक्ति का प्रतीक है; और ‘चीवर’ सेवा भाव का प्रतीक है।
अद्वितीय:
इस कलाकृति की विशेषताओं का वर्णन कई आलेखों में है, जिसके सत्यापन के लिए मैंने स्वयं सूक्ष्मता से इसका निरिक्षण किया। प्रथम  दृष्टि में मुझे इसका चेहरा ‘मंगोल’ बनावट का लगा। जब मैंने कुछ ध्यान से इसे देखा तो मुझे लगा कि यह चेहरे के कम ‘ओवल’ होने के कारण और इसकी मुस्कराहट को अंकित करने के लिए इसके ‘चिक-बोन’ में बनाये गए उभार के कारण ऐसा लगता है। आलेखों में भी मैंने कहीं इसके ‘मंगोलियन’ बनावट की बात नहीं देखी है। इसकी मुख-मुद्रा और मुस्कराहट कुछ ऐसी है मानो दूर से आते हुए किसी को देख कर मुस्कुरा रही हो। यादि आँखों के बनावट को थोड़ा दोष-पूर्ण माना जाए और यह समझें कि यह सामने देख रही है (दूर नहीं), तो ऐसा लगता है कि सामने वाले को ‘सुन’ कर या ‘देख’ कर प्रसन्न हो रही है और इसके मन में सामने वाले के लिए कोमल भाव हैं, और आगे इसके होठ कुछ कहने के लिए खुलने वाले हैं। इसकी मुस्कराहट आतंरिक प्रसन्नता के कारण होठों पर आयी कोमल स्मित है, प्रकट-हास्य की मुस्कुराहट नहीं है। बार-बार, अलग-अलग भाव लेकर मैं इसके सामने गयी और इसे देखा -  हर बार मुझे अपने ही भावों का प्रत्युत्तर मिला। इसी तरह कोई पुरुष दर्शक भी इसे ध्यान से देख कर अपनी तरह से व्यक्तिगत अनुभव कर सकता है और उसे तत्क्षण यह आभास होगा कि इस कलाकृति का निर्माण पूजन के उद्देश्य से न होकर नारी के सार्वभौम महत्ता को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से ही किया गया होगा।
अतः, दीदारगंज यक्षी वास्तव में यक्षी नहीं, विश्व की वह पहली प्रतीकात्मक कृति है जिसके माध्यम से नारी के सार्वभौमिक महत्व को आज से दो हजार साल पहले प्रदर्शित किया गया था; और प्राचीन भारतीय कालाओं में दीदारगंज यक्षिणी एकमात्र रचना है जो सम्पूर्ण रूप से नारी-शक्ति को समर्पित किया गया था - बिना देवी-देवता की संज्ञा दिए[10]। हमारे लिए यह गौरव की बात है कि ‘नारी की सम्पूर्णता’ को समर्पित विश्व का यह पहला स्मारक हमारे बिहार की देन है।
नाटक यक्षिणी:
चामर धारिणी का एक सांस्कृतिक मूल्य भी है, जिसकी हमेशा से उपेक्षा होती रही है।[11] डॉ. स्पूनर और प्रो० समादार, (जिन्हें इस कलाकृति को बिहार की जनता को समर्पित करने का श्रेय जाता है) भी उस वक्त ग्रामीणों से यह ज्ञात करने का जहमत नहीं उठा पाए कि प्रथम दृष्टि में उन लोगों ने इस मूर्ति को कौन सा देवी समझा जिसकी पूजा उन्होंने शुरू की। हर संस्कृति में कुछ परंपरागत मानदंड होते हैं जिसके आधार पर ग्रामीण किसी देवी देवता का पहचान कर पाते हैं; ठीक उसी प्रकार जैसे कला-इतिहासकार और पुरातत्वविद पुरातत्व विज्ञान के नियमों से करते हैं। अंतर यह है कि पहले का मानदंड विश्वास और परंपरा पर आधारित होता है और बाद वालों का तथ्य पर। किन्तु कभी - कभी स्थानीय सांस्कृतिक मानदंड भी कलाकृति के पहचान और विवरण में मूल्यवान साबित होते हैं। यह तो निश्चित है कि ग्रामीणों ने इसे देवी-देवता ही समझा था, नारी-सौन्दर्य का प्रतीक नहीं, क्योंकि कलाकृतियों का निर्माण प्राचीन भारत में ज्यातर धार्मिक उद्देश्य से ही हुआ है और जन मानस में मूर्तियाँ धार्मिक प्रतीक के रूप में ही अंकित है। फिर भी, मेरे विचार से ग्रामीणों के मंतव्य को जानना आवश्यक था।
चामर-धारिणी या इस तरह की अनेक उत्कृष्ट कलायें संग्रहालय की चाहरदीवारी के भीतर एक अमूल्य धरोहर और विद्वान् विश्लेषकों के लिए वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और कलात्मक विश्लेषणों का विषय बन कर रह जाती है; जन-साधारण के ह्रदय में कोई कोमल स्थान नहीं बना पाती। आम आदमी इसे एक पुरानी मूर्ति की तरह देखता है। गाइड्स के द्वारा, ‘कब का बना हुआ है और कैसे मिला’ की सर्वमान्य कहानी सुन कर बाहर आ जाता है। भले ही विदादास्पद सही, किन्तु इसके बनाने के उद्देश्य और इसमें निहित सन्देश अवश्य ही ‘महत’ रहे होंगे। तभी इसके निर्माण में इतना श्रम और साधन खर्च किया गया होगा। और फिर राजा का आदेश, उसके द्वारा प्रदत्त साधन और उसके निर्माण के निर्देश मात्र ही चामर धारिणी का निर्माण नहीं कर सकते थे। प्रत्येक कला के निर्माण में एक भावनात्मक पक्ष भी होता है। यह कलाकार का ‘मन’ होता है जो अंतिम रूप में कलाकृति का प्रणयन करता है, राजा का ‘धन’ नहीं। मूर्ति के निर्माण की पृष्ठभूमि कुछ भी रही हो, जब कलाकार छेनी और हथौड़ा हाथ में पकड़ कर किसी अनगढ़ पत्थर के सामने खड़ा होता है, तो उसका ‘मस्तिष्क’ नहीं बल्कि उसका ‘ह्रदय’ उसके हाथों को गति प्रदान करता है। कलाकार के ह्रदय में अवश्य ही किसी मूर्त नारी का स्वरुप रहा होगा, जो उसके लिए मूल्यवान रही होगी, प्रिय रही होगी। उसकी छवि उसके मन की आँखों में बसी होगी, तभी वह पत्थर की कठोर काया में  कोमल कल्पना को साकार कर पाया।
चामर-धारिणी की कमनीयता को देख कर उपरोक्त बातों को झुठलाया नहीं जा सकता। अतः इसके साहित्यिक और भाव पक्ष को भी समझना और समझाना आवश्यक होगा, तभी इस कलाकृति के सार्वभौम व्यापक मूल्यों की पहचान और जन-मानस में इसके लिए लगाव संभव है।
इन्ही उद्देश्यों को ले कर, दो हजार साल पूर्व के मौर्य कलाकार के तर्ज पर मैंने भी दीदारगंज-इमेज की कहानी को ‘यक्षिणी’[12] नाम से नाट्य-रूप देकर नारी समाज को समर्पित किया है। ‘यक्षिणी’ नाम इसलिए लिया गया क्योंकि आम जनता में यह इसी नाम से प्रसिद्द है। नाटक के प्रथम अंक में इसकी खोज की कहानी और इससे सम्बंधित सभी (ऐतिहासिक, पुरातात्विक, सौन्दर्यशास्त्रीय, कलात्मक आदि) तथ्यों का वर्णन किया गया है। साथ ही, इसके स्थानीय और तत्कालीन मान्यता के आधार पर इसके सांस्कृतिक मूल्य को भी प्रदर्शित करने का प्रयास मैंने किया है।
किसी पुरावशेष-कलाकृति के प्रदर्श भी,  पुरातात्विक, वैज्ञानिक और कलात्मकता के शुष्क मानदंडों के आधार पर ही आंकने की परंपरा है, जिसके कारण पुरातात्विक कलाकृतियाँ विद्वत-समूह के लिए ‘अध्ययन और अन्वेषण’ का विषय बन कर रह जाती है और आम आदमी भी उन्हें ‘पढ़ाई-लिखाई’ की वस्तु समझने लगता है। कलाकृतियाँ आम आदमी के मनोभावों को आंदोलित नहीं कर पाती, कामनाओं को झंकृत नहीं कर पाती, जो कि वास्तव में ‘कला’ का उद्देश्य होता है। अतः उक्त मानदंडो के अतिरिक्त हमें इसके प्रदर्श मूल्य को आंकने और बताने के लिए भावात्मक/काव्यात्मक मानदंडों और प्रतिमानों का भी प्रयोग करना चाहिए। ज्ञात तथ्यों के ठोस धरातल को कल्पनाशीलता की तरलता प्रदान करनी चाहिए ताकि कलाकृति जनमानस में प्रविष्ट हो सके।
यही कारण है कि इस नाटक में मैंने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में इसके निर्माण की कहानी को ‘तथ्यों की सीमा में परिबद्ध एक मिथक’ के रूप में प्रस्तुत किया है। इस विधि से चामर धारिणी, और इस जैसे कई अद्भुत किन्तु अनाम कलाकृतियों को हम उस विशाल जन-मानस तक पहुंचा सकते हैं, जहाँ तक की यात्रा के लिए कभी सूदूर अतीत में इनका उद्भव हुआ था। तथ्यों का विश्लेषण जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है ज्ञात तथ्यों और प्राचीन कलाकृतियों में निहित समाजोपयोगी सन्देश को जन-जन तक पहुंचाना। यह विरासत संरक्षण के साथ साथ सामजिक परिष्कार का भी लक्ष्य सिद्ध करता है।
सार्वजनिक संग्रहालय विज्ञान के क्षेत्र में भी इस बात की आवश्यकता है कि कलाकृतियों के तथ्यात्मक अध्ययन के साथ इसके काव्यात्मकता का भी मूल्यांकन और दोहन किया जाए। उनमें निहित समाजोपयोगी तथ्यों को प्रकाशित किया जाए।
इन्ही उद्देश्यों को लेकर मैंने ‘विरासत-नाटक’ (हेरिटेज प्ले) नामक नाट्य-श्रृंखला का आरम्भ किया है, जिसमें ‘यक्षिणी’ जैसे नाटकों की प्रस्तुति की जानी है।

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References:


[1] वस्तुतः यह भारत ही नहीं वरन विश्व की प्रथम त्रिविमीय नारी मूर्ति है। माना जाता है कि पूर्ण रूप से गोलाई में बना हुआ स्त्री की मानवाकार प्राचीनतम मूर्ति एफ्रोडाइट ऑफ़ नाइडस (Aphrodite of Cnidus or Knidus) है, जो 350 ईसा पूर्व में ग्रीक मूर्तिकार प्राक्सीटेलिस (Praxiteles) द्वारा बनाया गया था। किन्तु इस मूर्ति का अस्तित्व नहीं है। ग्रीक और रोमन साहित्य में इसका वर्णन है, जिसके आधार पर रोमन कलाकारों द्वारा 150 से 100 ईसा पूर्व के बीच बनाई गयी प्रतिकृतियाँ जैसे कैपिटोलिन वीनस (Capitoline Venus,) वीनस पुडीका (Venus Pudica) आदि ही वर्तमान वर्तमान में मौजूद हैं। माना जाता है कि असली मूर्ति रोमन सम्राट नीरो के समय में नष्ट हो गयी थी। दूसरी प्रसिद्द स्त्री मूर्ति ‘वीनस डी’ मिलो’ (Venus de Milo) है, जिसे 130 से 100 ईसा पूर्व में अलेक्जेंद्रोस ऑफ़ अन्तिओक (Alexandros of Antioch) द्वारा बनाया हुआ माना जाता है। अतः वर्तमान में जिन मूर्तियों का अस्तित्व है, उनमें दीदारगंज फिगर प्राचीनतम साबित होता है, यदि इसका काल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व है।

[2] Didarganj Image, Dr. D. B. Spooner, Didarganj Image: JBORS, 1919, Vol. V, part-1

[3] “…Thence it is alleged to have been removed by unauthorized persons to a spot some few hundred yards further up the river…” Didaganj Image now in Patna Museum, JBORS, 1919.

[4] Didarganj Chauri Bearer by Arvind Mahajan et al., Patna Museum 2012; डॉ. पृथ्वी कुमार अग्रवाल, भारतीय कला एवं वास्तु, 2014, पेज 120-21;

[5] Didarganj Chauri Bearer by Arvind Mahajan et al. ., Patna Museum 2012; Nihar Ranjan Ray, Maurya and Sunga Art, 1945, page - 52-53 ; J. N. Banerjee, Development of Hindu Iconography, 1941, page 107-8

[6] डॉ. विन्ध्येश्वरी प्रसाद सिंह, भारतीय कला को बिहार की देन, 1999, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पेज 68-69

[7] प्रशांत कुमार जायसवाल, यक्षी और स्त्री रत्न, भारतवाणी (श्रीमती इंदिरा गाँधी अभिनन्दन ग्रन्थ) वॉल्यूम-4, 1975

[8] सार्थवाह, डॉ. मोतीचंद्र, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्

[9] साहित्यों में भी इन अभिलक्षणों को आदर्श-नारी-कमनीयता का प्रतीक माना गया है: ‘पीन-पयोधर, दुबरी-गता; मेरू उपजल कनक-लता’।

[10] अतः, डॉ. प्रशांत कुमार जायसवाल का यह मत कि यह प्रतिमा ‘स्त्री-रत्न’ की है, ठीक लगता है।

[11] Richard H Davis : Lives of Indian Images

[12] यक्षिणी, लेखक अरविन्द कुमार, ऐतिहासिक तथ्य - डॉ. शंकर सुमन, संग्रहालयाध्यक्ष, पटना संग्रहालय, पटना।